Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी अपने मन में न जाने क्या सोचने लगी, फिर सहसा कह उठी- “देखो, इस सुनन्दा के जैसे अच्छी, निर्लोभ और सत्यवादी और कोई दूसरी औरत मैंने नहीं देखी, पर जब तक उसकी विद्या की गरमी न जायेगी तब तक वह विद्या किसी काम नहीं लगेगी।”


“पर सुनन्दा को विद्या का घमण्ड तो नहीं है?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं, दूसरों की तरह नहीं है-और यह बात मैंने कही भी नहीं। वह कितने श्लोक, कितनी शास्त्र-कथाएँ, कितने उपाख्यान जानती है। उसके मुँह से सुन-सुनकर ही तो मेरी यह धारणा हुई थी कि मैं तुम्हारी कोई नहीं हूँ, हमारा सम्बन्ध झूठा है- और विश्वास भी तो यही करना चाहा था- पर भगवान ने मेरी गर्दन पकड़कर समझा दिया कि इससे बढ़कर मिथ्या और कुछ नहीं है। इसी से समझ लो कि उसकी विद्या में कहीं जबरदस्त भूल है। इसीलिए देखती हूँ कि वह किसी को सुखी नहीं कर सकती, सिर्फ दु:ख ही दे सकती है। उसकी जेठानी उससे बहुत बड़ी है। सीधी-सादी है, पढ़ना-लिखना नहीं जानती, पर दिल में दया-माया भरी हुई है। कितने दु:खी और दरिद्र परिवारों का वह लुक-छिपकर प्रतिपालन करती है- किसी को पता भी नहीं चलता। जुलाहे-परिवार के साथ जो एक सुव्यवस्था हो गयी, वह क्या कभी सुनन्दा के जरिए हो सकती थी? तुम क्या यह सोचते हो कि वह तेज दिखलाकर मकान छोड़कर चले जाने के कारण हुई है? कभी नहीं। यह तो उसकी बड़ी देवरानी ने अपने पति के पैरों पड़ और रो-धोकर किया है। सुनन्दा ने सारी दुनिया के सामने अपने बड़े जेठ को चोर कहकर छोटा कर दिया- यही क्या शास्त्र-शिक्षा का सुफल है? उसकी पोथी की विद्या जब तक मनुष्यों के सुख-दु:ख, भलाई-बुराई, पाप-पुण्य, लोभ-मोह के साथ सामंजस्य नहीं कर पाती तब तक पुस्तकों के पढ़े हुए कर्तव्य-ज्ञान का फल मनुष्य को बिना कारण छेदेगा, अत्याचार करेगा और तुम्हें बताये देती हूँ, कि संसार में किसी का भी कल्याण नहीं करेगा।”

ये बातें सुनकर विस्मित हुआ। पूछा, “यह सब तुमने सीखा किससे?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “क्या मालूम किससे, शायद तुमसे ही। तुम कुछ करते नहीं, कुछ माँगते नहीं, किसी पर जोर नहीं डालते। इसीलिए तुमसे सीखना सिर्फ सीखना नहीं है, वह तो सत्यरूप में पाना है। हठात् एक दिन आश्चर्य के साथ सोचना पड़ता है कि यह सब कहाँ से आया? पर इसे जाने दो, इस बार जाकर बड़ी कुशारी-गृहिणी से मित्रता करूँगी और उस दफा उनकी अवहेलना करके जो गलती की है, अबकी बार उसे सुधारूँगी। चलोगे न गंगामाटी?”

“किन्तु बर्मा? मेरी नौकरी?”

“फिर वही नौकरी? अभी तो कहा कि मैं तुम्हें नौकरी नहीं करने दूँगी।”

“लक्ष्मी, तुम्हारा स्वभाव खूब है। तुम कहती कुछ नहीं, चाहती कुछ नहीं, किसी पर जोर भी नहीं करतीं-विशुद्ध वैष्णव- सहनशीलता का नमूना सिर्फ तुम्हारे ही निकट मिलता है।”

“इसीलिए क्या जिसकी जो इच्छा होगी, उसी का अनुमोदन करना पड़ेगा? संसार में क्या और किसी का दु:ख-सुख नहीं है? तुम्हीं सब कुछ हो?”

“ठीक कहती हो, किन्तु अभया? उसने प्लेग का भय नहीं किया। अगर उस दुर्दिन में आश्रय देकर वह न बचाती तो शायद आज तुम मुझे पातीं ही नहीं। आज उसका क्या हुआ, यह क्या बिल्कुरल ही न सोचूँ?”

राजलक्ष्मी क्षण-भर में ही करुणा और कृतज्ञता से बिगलित होकर बोली, “तो तुम रहो, आनन्द देवर को लेकर मैं बर्मा जाती हूँ, पकड़कर उन लोगों को ले आऊँगी। यहाँ उनके लिए कोई प्रबन्ध हो ही जायेगा।”

“यह हो सकता है, किन्तु वे बहुत अभिमानिनी है। मैं न गया तो शायद वह न आयेगी।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “आयेगी। यह समझेगी कि तुम्हीं उन लोगों को लेने आये हो। देखना, मेरा कहना गलत नहीं होगा।”

“पर मुझे छोड़कर जा तो सकोगी?”

राजलक्ष्मी पहले तो चुप रही, फिर अनिश्चित कण्ठ से धीरे से बोली, “इसी का तो मुझे डर है। शायद नहीं जा सकूँगी। पर इससे पहले चलो न थोड़े दिनों तक गंगामाटी में चलकर रहें।”

“वहाँ क्या तुम्हें कोई विशेष काम है?”

“थोड़ा-सा है। कुशारीजी को खबर मिली है कि पास का पोड़ामाटी गाँव बिकने वाला है। सोचती हूँ कि वह खरीद लूँ। और उस मकान को भी अच्छी तरह से तैयार कराऊँ जिससे तुम्हें रहने में कष्ट न हो। उस दफा देखा कमरे के अभाव में तुम्हें बड़ा कष्ट होता था।”

“कमरे के अभाव की वजह से कष्ट नहीं होता था, कष्ट तो दूसरे कारण से होता था!”

राजलक्ष्मी ने जान-बूझकर ही इस बात पर कोई ध्याेन नहीं दिया। कहा, “मैंने देखा है कि वहाँ तुम्हारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है। तुम्हें शहर में ज्यादा दिनों तक रखने का साहस नहीं होता, इसीलिए तो जल्दी से हटा ले जाना चाहती हूँ।”

“पर इस भंगुर शरीर के लिए अगर तुम क्षण-क्षण इतनी उद्विग्न होती रहोगी तो मन को शान्ति नहीं मिलेगी, लक्ष्मी।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “यह उपदेश बहुत काम का है, पर यह मुझे न देकर यदि खुद ही जरा सावधान रहो, तो शायद थोड़ी-सी शान्ति पा सकूँ।” सुनकर चुप रहा। क्योंकि, इस बारे में तर्क करना सिर्फ निष्फल ही नहीं, अप्रीतिकर भी होता है। स्वयं उसका अपना स्वास्थ्य अटूट है, पर जिसको यह सौभाग्य प्राप्त नहीं है बिना कारण भी वह बीमार हो सकता है, यह बात वह किसी तरह भी नहीं समझेगी। कहा, “शहर में मैं कभी नहीं रहना चाहता। उस समय गंगामाटी मुझे अच्छी ही लगी थी। यह बात तुम आज भूल गयी हो लक्ष्मी कि, मैं वहाँ से अपनी इच्छा से चला भी नहीं आया था।”

“नहीं जी नहीं, भूली नहीं हूँ, सारी जिन्दगी नहीं भूलूँगी” यह कहकर वह जरा हँसी। बोली, “उस बार तुम्हें ऐसा लगता था मानो किसी अनजान जगह में आ गये हो, पर इस बार जाकर देखोगे कि उसकी आकृति-प्रकृति ऐसी बदल गयी है कि उसे अपना समझने में तुम्हें जरा भी अड़चन न होगी। और सिर्फ घर-बार और रहने की जगह ही नहीं, इस बार जाकर मैं बदलूँगी, स्वयं अपने को और सबसे ज्यादा तोड़-मोड़कर नये सिरे से गढ़ूँगी तुम्हें- अपने नये गुसाईंजी को, जिससे कमललता दीदी फिर पथ-विपथ में घूमने का साथी बनाने का दावा पेश न कर सकें।”

“शायद यही सब सोच-समझकर स्थिर किया है?”

राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, “हाँ! तुम्हें क्या बिना मूल्य यों ही ले लूँगी- उसका ऋण नहीं चुकाऊँगी? और जाने के पहले, मैं भी तुम्हार जीवन में सचमुच ही आई थी, इस आने के चिह्न को न छोड़ जाऊँगी? ऐसी ही निष्फल चली जाऊँगी? नहीं, यह किसी तरह न होने दूँगी।”

उसके मुँह की ओर देखकर श्रद्धा और स्नेह से हृदय परिपूर्ण हो गया। मन-ही-मन सोचा, हृदय का विनिमय नर-नारी की अत्यन्त साधारण घटना है-संसार में नित्य ही घटती रहती है- विराम नहीं, विशेषत्व नहीं। फिर भी यह दाना और प्रतिग्रह की व्यक्ति-विशेष के जीवन का अवलम्बन कर ऐसे विचित्र विस्मय और सौन्दर्य से उद्भासित हो उठता है कि उसकी महिमा युग-युगान्त तक मनुष्य के हृदय को अभिषिक्त करती रहकर भी समाप्त नहीं होना चाहती। यही वह अक्षय सम्पत्ति है जो मनुष्य को बृहत् करती है, शक्तिशाली बनाती है और अकल्पित कल्याण द्वारा नया बना देती है। पूछा, “तुम बंकू का क्या करोगी?”

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